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कविता

उधेड़बुन

प्रतिभा चौहान


खामोशी की किताब में
जीवन को पढ़ना जरूरी है
जागने और सो जाने के मध्य की खामोशियाँ ही
असली भाषाई हर्फ हैं...

स्वप्नों के रंग नहीं होते
बस रँगे जाते हैं अंतर्चेतना के गर्म लहू से
डूबते सूरज और उगती चाँद की परछाइयाँ
आत्मा पर खरोंच जैसी हैं
बाहर सौम्य सा बहता मौसम
भीतर एक ज्वालामुखी
उधेड़ी बुनी जाती
सुर्ख यादों का सिलसिला जारी है...

लहरों में तैरते चाँद सी
खिंची है रेखा क्षितिज में
छूने को झील की गहराई
उतरते तारों भरे आकाश की थाली
परोसी हुई तुम्हारे आलिंगन को खामोश प्रहर में।


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